हलाला जैसी प्रथा का जब मुस्लिम महिलाओं द्वारा ही बचाव देखता हूँ तो मैं आश्चर्यचकित क्यों होता हूँ? क्या हलाला वही है जो मुझे मालूम है? या महिलाओं का विरोध सिर्फ भ्रम है?

हलाला मुस्लिम पति को अपने तलाक़ देने के अधिकार का दुरुपयोग करने से रोकने के लिए एकेश्वर द्वारा निर्धारित एक अति प्रभावशाली विधी है। इसलिए महिलाओं द्वारा इसका बचाव करने में कोई आश्चर्य की बात है ही नहीं!

ज़ुरूरत है सही बात समझने की!

इस्लाम में ईश्वर ने तलाक़ के मामले में पति को, पत्नी की तुलना में, ज़्यादा अधिकार दिए हैं। पति कभी भी तलाक़ दे सकता है; जबके पत्नी को तलाक़ (ख़ुला) लेने के लिए क़ाज़ी के पास अर्ज़ी् करनी पड़ती है।

ये इस लिए उचित है के अगर क्रूर, अत्याचारी पति को तलाक़ देने में किसी भी क़िस्म की मुश्किल/देरी पेश आती है तो वो पत्नी की जान भी ले सकता है! आसान तलाक़ से पत्नि की जान भी बचती है और क्रूर पति से आसानी से छुटकारा भी मिल जाता है।

पति तलाक़ के अधिकारों का दुरुपयोग पत्नी को दबाने के लिए तलाक़ देने की धमकी दे कर कर सकता है। अतः ईश्वर ने ये नियम बना दिया के अगर किसीने ‌‌अपनी पत्नी को पूर्णतः (तीन बार) तलाक़ दे दी तो फिर वो उस से पुनर्विवाह कभी नहीं कर सकता; अर्थात पत्नी को तीन बार तलाक़ देने का अर्थ है उसको हमेशा के लिए खो देना!

इस नियम के लिए एकेश्वर ने एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति को अपवाद बनाया है। और वो अपवादात्मक स्थिति ये है के अगर ऐसा हो जाए (किया नहीं जाए बल्कि हो जाए) के वो महिला किसी और पुरुष से जीवन भर साथ निभाने के इरादे से विवाह करे और विवाह के बाद दूसरे पति के साथ उसका शारीरिक संबंध भी हो जाए; और इसके बाद अगर महिला के दूसरे पति का देहांत हो जाए या उनमें तलाक़ हो जाए तब इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में वो महिला, अगर उचित समझे तो, अपने पॅहले पति से पुनर्विवाह कर सकती है।

महिला का दूसरा विवाह हलाले के इरादे से नहीं बल्कि पूरे जीवन काल के लिए निबाह करने के पक्के इरादे से होना चाहिए। अतः पुराने, तलाक़ देनेवाले पति से पुनर्विवाह का सवाल उसी सूरत में उठ सकता है जब दूसरे पति की मृत्यु हो जाती है या उससे किसी और कारणवश तलाक़ हो जाती है।

ये बात बिल्कुल स्पष्ट है के हलाला कोई रीत या इरादा करके करने की विधि नहीं है; ये एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है जो अगर दुर्भाग्यवश हो जाए तब एक सख़्त नियम में कुछ छूट (concession) मिल जाती है। पूर्व नियोजित (इरादा करके किया गया) हलाला किसी भी स्थिति में जाइज़ नहीं है। ये एक अति घृणित पाप और अपराध है!

पूर्व-नियोजित हलाले में शामिल सभी लोगों पर प्रेषित मुहम्मद ने लानत भेजी है; उनका धिक्कार किया है। ये लोग पापी (Sinners) और अपराधी (Criminals) हैं और ऐसे लोगों का धिक्कार/बहिष्कार करना और उन्हें इसी दुनिया में शासन द्वारा कठोर दंड देना ज़रूरी है। इस तरह की प्रथा कुछ पाखंडी मुल्ला चलाकर धर्म को बदनाम कर रहे हैं। इसका विरोध ना करने के कारण भारत के सभी मुस्लिम दोषी बनते हैं।

हलाला सिर्फ़ तीन बार तलाक़ के बाद उसी तलाक़ देने वाले पुरुष से फिर से विवाह करने के मामले में ही लागू होता है। हलाला ना तो एक या दो बार तलाक़ देने के बाद लागू होता है; ना तो तलाक़ के बाद किसी और पुरुष से विवाह करने के मामले में लागू होता है।

क्योंकि कोई भी अहंकारी पुरुष इस तरह की बात को बर्दाश्त नहीं कर सकता, इसलिए वो अपनी पत्नी को तलाक़ तभी देगा जब उसने तलाक़ देने का दृढ़ संकल्प कर लिया हो और वो उस महिला के साथ अब बिल्कुल भी नहीं रैह्ना चाहता। हलाला की नागवार शर्त की वजह से केवल पत्नि को डराने-धमकाने के लिए तलाक़ देने की कोई पति सोच भी नहीं सकता!

नीचे हमारे आदरणीय देशबंधु ने टिप्पणी में इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया है के हलाला, जिसमें में कुछ भी अच्छा होना उनके हिसाब से असंभव है, को कोई Logically कैसे ठीक मान सकता है?! इस पर कुछ विचार ये हैं:

(१) कोई भी महिला या उसके परिवार वाले क्रूर, हिंसक पुरुष से संबंध नहीं बनाना चाहते; मगर अनजाने में जिस महिला के साथ ऐसी दुर्घटना हो जाती है उसे आसानी से इस दुर्भाग्य से निकलने का रास्ता आसान तलाक़ है।

(२) तलाक़ के बाद फिर उस पुरुष के चुंगल में पड़ने से बचने का प्रभावी उपाय हलाला है।

(३) हलाला का मतलब ये है के जिस पुरूष ने एक बार नहीं बल्कि तीन बार तलाक़ दिया हो उस पुरुष को दोबारा उस महिला को बॅहला फुसलाकर फंसाने का मौक़ा ना मिले। और उस महिला का दूसरे पुरुष से विवाह हो और पॅहला पति जीवनभर अपने किये पर पछताता रहे।

यहां इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए के इस्लाम में तलाक़-पीड़ित अथवा विधवा महिलाओं के पुनर्विवाह पर कोई प्रतिबंध तो है ही नही! और सिर्फ़ इतना ही नहीं… इस्लाम में सर्वश्रेष्ठ समझे जानेवाले मानव प्रेषित मुहम्मद ने, एक अपवाद को छोड़कर, केवल विधवाओं और तलाक़-पीड़ित महिलाओं से विवाह करके महिलाओं के पुनर्विवाह को अति-सम्मानित कर्म बना दिया है।

(४) एक महिला के लिए सबसे अपमानजनक बात यही है के उसे तीन बार तलाक़ देने वाले नीच पुरुष की फिर से पत्नी बनना पड़े। हलाला की शर्त की वजह से पॅहला पति या संबंधी महिला को बच्चों या परिवार का वास्ता देकर एक नीच पुरुष की दोबारा पत्नी बनने पर बाध्य नहीं कर सकते।

हलाला को महिलाओं के लिए अपमानास्पद बताने वालोें के दिमाग़ में, उनके संस्कारों की वजह से, ये बात बैठी है के एक महिला के लिए उसके पति, वो नराधम जैसा भी हो, के पास जाने के सिवा दूसरा कोई रास्ता है ही नहीं; और ना होना चाहिए!

इसीलिए वो अपनी बच्चियों को बचपन से ये विद्वत्ता सिखाते हैं के "भला है; बुरा है; जैसा भी है… मेरा पति मेरा देवता है!" यही नहीं, अगर पति परमेश्वर मर जाए तो महिला को सती हो जाना चाहिए। इसलिए वो महिला को उस नीच नराधम के पास वापस जाने का रास्ता आसान रखना चाहते हैं।

इसके विपरित इस्लाम ये कॅह्ता है के पत्नी को तीन बार तलाक़ देने वाला पति पत्नी का परमेश्वर या भाग्य नहीं उसका दुर्भाग्य है और उसके जीवन की एक दुर्घटना है जिससे उस महिला को तलाक़ के ज़रिए आसानी से मुक्ती पाकर उस दुर्भाग्य के तरफ़ ले जाने वाले रास्ते को हलाला की नागवार शर्त लगा कर बन्द कर देना चाहिए। और उस दुर्भाग्य को भुला कर एक नये साथी के साथ नया जीवन शुरू करना चाहिए!

हलाला का मक़सद तलाक़-पीड़ित महिलाओं के लिए तलाक़ देनेवाले पति की फिर से पत्नी बनने का रास्ता बनाना नहीं, बल्कि ऐसे रास्ते को बंद करना है।

(५) पूर्व नियोजित हलाला जायज़ ही नहीं है। हमारे देश में कुछ लोग ऐसा करने का केवल इसलिए सोच सकते हैं क्योंकि हमारे यहां धर्म को अपने स्वार्थ के अनुसार बदलने का अधिकार पाखंडियों ने ख़ुद को दिया है और मुस्लिम समाज के दूसरे नपुंसक लोगों ने उसे मान भी लिया है।

एक और संस्कारी टिप्पणी:-

"और अगर पुरुष गुस्से में आकर या गलती से तीन तलाक दे दिया तो स्त्री को हलाला का जहन्नुम भोगना पड़ेगा? क्यों भला? फिर अपने पिता तुल्य ससुर से भाई तुल्य देवर से हलाला भी करवाना होता है? यह सभ्य समाज में बिल्कुल मान्य नहीं हो सकता। आप के तर्क विवेक सम्मत नहीं लगता खालिद साहब।"

और उसका जवाब:-

जब तलाक़ के इस्लामी तरीक़े के अनुसार तलाक़ देने के लिए अनिवार्य रूप से (१) तीन तलाक़ एक-एक करके तीन महीने के अंतराल में देना है; (२) इस दौरान कुछ समय के लिए पति-पत्नी को अलग-अलग भी रहना है; और (३) पति-पत्नी के परिवार वालों को मध्यस्थता भी करने देना है…तो ग़ुस्से में आकर या ग़लती से तलाक़ देने की संभावना की कल्पना भी कहां से आ सकती है??!!

इसलिए आपने जो scenario रचा है वो इस्लाम के माननेवालों में होना असंभव है। ऐसा उस हालत में होगा जब पति और उसका परिवार अमानवीय और पूर्णतः ग़ैर-इस्लामी नराधमों से भरा हुआ हो। जी हां! ऐसे लोग भी होते हैं… लेकिन केवल उस समाज में जिनमें नवविवाहिताओं और बहुओं को पर्याप्त दहेज ना लाने के अक्षम्य "अपराध" में ज़िंदा जलाने की प्रथा सदियों से चली आ रही हो।

इस्लाम में अगर कोई महिला ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में पड़ती है तो इससे पहले के वो नराधम उसे तलाक़ देने की सोचे वो स्वयं उससे तलाक़ (ख़ुला) ले सकती है… इस्लाम ने ये अधिकार (ख़ुला) महिलाओं को दिया है।

इस्लाम में पत्नी अपने पति की सात जन्मों के लिए कन्यादान या स्वयंवर द्वारा अर्जित की हुई गाय-बैल से निम्न दर्जे की संपत्ति नहीं है बल्कि संपत्ति समेत सारे अधिकारों से सम्मानित व्यक्ति है जो अपने ऊपर अत्याचार होने पर इस्लामी न्यायिक व्यवस्था से न्याय हासिल करने का अधिकार रखती है।

अगर वो तलाक़ नहीं लेती है और वो नराधम इसे तीन तलाक़ देता है तब ये उस महिला को मिली मुक्ति है। और हलाला की शर्त की वजह से उस महिला को फिर से उसी नर्क में झोंकने का रास्ता बंद हो जाता है। और ये उस नीच पति और उसके परिवार के लिए सज़ा है; महिला के लिए मुक्ति है।

लेकिन आप अपने संस्कारों की वजह से उस मुक्ति-प्राप्त स्त्री के बारे में ये विचित्र बात कह रहे हैं के "स्त्री को हलाला का जहन्नुम भोगना पड़ेगा"

क्यूँ भोगना पड़ेगा??!!

हलाला का उद्देश्य ही यही है के किसी भी महिला को तीन-बार-तलाक़-देने-वाले पति के जहन्नुम में वापस ना जाना पड़े।

आप की सोच के पत्नी सात जन्मों के लिए पति की संपत्ति होती है इसलिए उसे कुछ भी करके, कुछ भी सहके अपने पति-परमेश्वर के पास वापस जाना ही है… ये आपकी सोच है! ये मुस्लिम महिलाओं पर लागू ही नहीं होती क्योंकि इस्लाम ने उनके उद्धार का रास्ता उनके लिए १४०० साल पहले ही खोल दिया था। 



Post a Comment

Previous Post Next Post